‘पहाड़ पर रखी वह लालटेन’ बुझ गई। जाने-माने कवि मंगलेश डबराल नहीं रहे। हृदयघात के बाद गाजियाबाद के वसुंधरा के एक निजी अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। हालत बिगड़ने पर उन्हें एम्स रेफर किया गया था, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली। समकालीन कवियों में चर्चित नाम डबराल का जन्म उत्तराखंड के टिहरी जिले के काफलपानी में हुआ था। खुद की ही तरह अपनी बेहद शांत रचनाओं से व्यवस्था को झकझोरने वाले मंगलेश अपने पीछे कविताओं का ऐसा संसार छोड़ गए हैं, जो उनकी याद दिलाता रहेगा। पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज भी एक जगह है, नए युग में शत्रु उनके कविता संग्रह हैं। मंगलेश जी को श्रद्धांजलि देते हुए हम उनकी 5 चुनिंदा कविताएं यहां दे रहे हैं… पहाड़ पर लालटेनजंगल में औरतें हैंलकड़ियों के गट्ठर के नीचे बेहोशजंगल में बच्चे हैंअसमय दफ़नाए जाते हुएजंगल में नंगे पैर चलते बूढ़े हैंडरते-खांसते अंत में गायब हो जाते हुएजंगल में लगातार कुल्हाड़ियां चल रही है।जंगल में सोया है रक्तधूप में तपती हुई चट्टानों के पीछेवर्षों के आर्तनाद हैंऔर थोड़ी-सी घास है बहुत प्राचीनपानी में हिलती हुईअगले मौसम के जबड़े तक पहुंचते पेड़रातोंरात नंगे होते हैंसुई की नोक जैसे सन्नाटे मेंजली हुई धरती करवट लेती हैऔर एक विशाल चक्के की तरह घूमता है आसमानजिसे तुम्हारे पूर्वज लाये थे यहां तकवह पहाड़ दुख की तरह टूटता आता है हर सालसारे वर्ष सारी सदियांबर्फ़ की तरह जमती जाती हैं दुःस्वप्न आंखों में।तुम्हारी आत्मा मेंचूल्हों के पास पारिवारिक अंधकार मेंबिखरे हैं तुम्हारे लाचार शब्दअकाल में बटोरे गये दानों जैसे शब्ददूर एक लालटेन जलती है पहाड़ परएक तेज़ आंख की तरहटिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुईदेखो अपने गिरवी रखे हुए खेतबिलखती स्त्रियों के उतारे गए गहनेदेखो भूख से बाढ़ से महामारी से मरे हुएसारे लोग उभर आये हैं चट्टानों सेदोनों हाथों से बेशुमार बर्फ़ झाड़करअपनी भूख को देखोजो एक मुस्तैद पंजे में बदल रही हैजंगल से लगातार एक दहाड़ आ रही हैऔर इच्छाएं दांत पैने कर रही हैपत्थरों परटॉर्चमेरे बचपन के दिनों में
एक बार मेरे पिता एक सुंदर सी टॉर्च लाएजिसके शीशे में गोल खांचे बने हुए थे जैसे आजकल कारों कि हेडलाइट में होते हैंहमारे इलाके में रोशनी कि वह पहली मशीनजिसकी शहतीर एक चमत्कार कि तरह रात को दो हिस्सों में बांट देती थी।एक सुबह मेरी पड़ोस की दादी ने पिता से कहाबेटा इस मशीन से चूल्हा जलाने कि लिए थोड़ी सी आग दे दोपिता ने हंसकर कहा चाची इसमें आग नहीं होती सिर्फ उजाला होता हैयह रात होने पर जलती हैऔर इससे पहाड़ के उबड़-खाबड़ रास्ते साफ दिखाई देते हैंदादी ने कहा बेटा उजाले में थोड़ा आग भी रहती तो कितना अच्छा थामुझे रात को भी सुबह चूल्हा जलाने की फिक्र रहती हैघर-गिरस्ती वालों के लिए रात में उजाले का क्या कामबड़े-बड़े लोगों को ही होती है अंधेरे में देखने की ज़रूरतपिता कुछ बोले नहीं बस ख़ामोश रहे देर तक।इतने वर्ष बाद भी वह घटना टॉर्च की तरह रोशनीआग मांगती दादी और पिता की ख़ामोशी चली आती हैहमारे वक्त की कविता और उसकी विडम्बनाओं तक।बच्चों के लि॒ए एक चिट्ठीप्यारे बच्चो हम तुम्हारे काम नहीं आ सके। तुम चाहते थे हमारा कीमतीसमय तुम्हारे खेलों में व्यतीत हो। तुम चाहते थे हम तुम्हें अपने खेलोंमें शरीक करें। तुम चाहते थे हम तुम्हारी तरह मासूम हो जाएं।प्यारे बच्चो हमने ही तुम्हें बताया था जीवन एक युद्धस्थल है जहांलड़ते ही रहना होता है। हम ही थे जिन्होंने हथियार पैने किए। हमनेही छेड़ा युद्ध हम ही थे जो क्रोध और घृणा से बौखलाए थे। प्यारेबच्चो हमने तुमसे झूठ कहा था।यह एक लंबी रात है। एक सुरंग की तरह। यहां से हम देख सकतेहैं बाहर का एक अस्पष्ट दृश्य। हम देखते हैं मारकाट और विलाप।बच्चो हमने ही तुम्हे वहां भेजा था। हमें माफ़ कर दो।हमने झूठ कहाथा कि जीवन एक युद्धस्थल है।प्यारे बच्चो जीवन एक उत्सव है जिसमें तुम हंसी की तरह फैले हो।जीवन एक हरा पेड़ है जिस पर तुम चिड़ियों की तरह फड़फड़ाते हो।जैसा कि कुछ कवियों ने कहा है जीवन एक उछलती गेंद है औरतुम उसके चारों ओर एकत्र चंचल पैरों की तरह हो।प्यारे बच्चो अगर ऎसा नहीं है तो होना चाहिए।पहाड़ से मैदानमैं पहाड़ में पैदा हुआ और मैदान में चला आयायह कुछ इस तरह हुआ जैसे मेरा दिमाग पहाड़ में छूट गयाऔर शरीर मैदान में चला आयाया इस तरह जैसे पहाड़ सिर्फ मेरे दिमाग में रह गयाऔर मैदान मेरे शरीर में बस गयापहाड़ पर बारिश होती है बर्फ पड़ती हैधूप में चोटियां अपनी वीरानगी को चमकाती रहती हैंनदियां निकलती हैं और छतों से धुआं उठता हैमैदान में तब धूल उड़ रही होती हैकोई चीज़ ढहाई जा रही होती हैकोई ठोकपीट चलती है और हवा की जगह शोर दौड़ता हैमेरा शरीर मैदान है सिर्फ एक समतलजो अपने को घसीटता चलता है शहरों में सड़कों परहाथों को चलाता और पैरों को बढ़ाता रहता हैएक मछुआरे के जाल की तरह वह अपने को फेंकताऔर खींचता है किसी अशांत डावांडोल समुद्र सेमेरे शरीर में पहाड़ कहीं नहीं हैऔर पहाड़ और मैदान के बीच हमेशा की तरह एक खाई हैकभी-कभी मेरा शरीर अपने दोनों हाथ ऊपर उठाता हैऔर अपने दिमाग को टटोलने लगता है।रोटी और कविताजो रोटी बनाता है कविता नहीं लिखता
जो कविता लिखता है रोटी नहीं बनातादोनों का आपस में कोई रिश्ता नहीं दिखतालेकिन वह क्या हैजब एक रोटी खाते हुए लगता हैकविता पढ़ रहे हैंऔर कोई कविता पढ़ते हुए लगता हैरोटी खा रहे हैं।
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