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Home » कहां पहुंचा रही हैं ये सड़कें

कहां पहुंचा रही हैं ये सड़कें

Press24 News by Press24 News
December 5, 2020
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मथुरा में सड़क निर्माण से जुड़ी एक याचिका की सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस एसए बोबडे ने इसी हफ्ते कहा कि सड़क के रास्ते में अगर कोई पेड़ आ जाता है तो उसे काटना ही क्यों जरूरी है? सड़क पेड़ के अगल-बगल से थोड़ा मुड़ते हुए आगे क्यों नहीं बढ़ सकती? अगर सड़क किसी पेड़ के अगल-बगल जिगजैग तरीके से बनाई जाए तो उस पर गुजरने वाले वाहनों की स्पीड कम हो जाएगी। अगर स्पीड कम होगी तो दुर्घटनाएं कम होंगी। साथ ही पेड़ भी बचेंगे।
स्पीड कम करने की बात कोई पहली बार नहीं कही गई है। अदालतों से कहीं पहले, हमारे अपने घर की अदालतों में भी बड़े-बूढ़े यही कहते आए हैं कि धीरे चलो। पर धीरे चलें तो कैसे? धीरे चलने वाली सड़कें पहले बनती थीं। जहां ऊंचाई आती था, ऊंची हो जाती थीं, जहां ढलान आती थी, ढल जाती थीं और जहां मोड़ आता था, मुड़ जाती थीं। मगर अब सड़कें सीधी और सपाट बनाई जाती हैं। इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि लोगों के पास समय नहीं रह गया है, इससे उनके समय की बचत होती है।
इस वक्त भारत दुनिया में अमेरिका के बाद दूसरा सबसे बड़ा सड़कधारी देश है। भारत के पास तकरीबन 59 लाख किलोमीटर सड़कों का नेटवर्क है तो अमेरिका के पास तकरीबन 67 लाख किलोमीटर। इन सड़कों के लिए भारत हर साल लाखों पेड़ों की बलि चढ़ा रहा है और दुर्घटनाओं में औसतन डेढ़ लाख मनुष्यों की भी। महानगरीय सड़कों पर इस पागलपन से लोगों को मेट्रो और सार्वजनिक परिवहन सेवाओं ने कुछ जरूर बचाया है, मगर कोरोना के बाद से ये सेवाएं भी नियमित नहीं रह गई हैं। इस वजह से सिर्फ लॉकडाउन के बाद की अवधि में ही सड़क दुघर्टनाओं में 65 हजार से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा बैठे।
यमुना एक्सप्रेस वे पर दौड़ती गाड़ियां
औद्यौगिक क्रांति के बाद से समय दुनिया की सबसे कीमती चीज बन चुका है। समय बचाने के लिए सबसे आसान रास्ता तेज स्पीड को ही समझ लिया गया है। इस स्पीड को और बढ़ाने के लिए ऑटोमोबाइल कंपनियां वाहन बना रही हैं जबकि सरकारें एक्सप्रेस वे बनाकर इस काम में उनका सहयोग रही हैं। तेल कंपनियां विज्ञापन दे रही हैं कि उनका खास ब्रैंड वाला तेल डाला तो गाड़ी बिल्कुल हवाई जहाज बन जाएगी, जी करेगा कि सामने की दुकान तक जगह जाने के लिए भी पूरे शहर का चक्कर लगा आएं। अर्थशास्त्रियों को लगता है कि सड़क और स्पीड की जुगलबंदी जितनी तेज होगी, जीडीपी के आंकड़े भी उतने ही तेज बढ़ेंगे। जिस क्षेत्र में कोई नई सड़क बनी, उसका विकास हुआ या विनाश, इसका कोई ठोस अध्ययन कराने से सरकारें बचती रही हैं।
फिर वे आती भी तो पांच साल के लिए ही हैं, उनका हड़बड़ी में होना स्वाभाविक है। वैसी ही हड़बड़ी में जनता भी है। यथासंभव देर करके घर से निकलना और सड़क पर हड़बड़ी मचाना। लाल बत्ती होने के बावजूद हॉर्न मारते रहना सबके जीवन का चलन बन गया है। स्पीड के इस सम्मोहन का संबंध कहीं जल्दी पहुंचने से तो क्या, कहीं पहुंचने से भी नहीं रह गया है। ऑटो इंडस्ट्री के खेल को मैन्युफैक्चरिंग की वह धुरी बना दिया गया है, जिसके रास्ते आंकड़ों के कुछ छवि चमकाने वाले खेल संभव होते हैं।
पहले सबके पास गाड़ी नहीं होती थी। बीसवीं सदी की शुरुआत में फोर्ड सिर्फ काले रंग की ही कारें बनाता था। बाजार में और भी कलर वैराइटी की डिमांड थी, लेकिन उसका कहना था कि वह सबके मनपसंद रंगों वाली कार बना सकता है, बशर्ते सबकी पसंद का रंग काला हो। 1973 का तेल संकट आने तक कारें राजसी ठाठ-बाट की चीज समझी जाती थी। मगर इस संकट के दौरान पेट्रोल की किल्लत से जूझते हुए जापान ने कम से कम फ्यूल खाने वाली हल्की गाड़ियां बनाने का संकल्प लिया। यहीं से कारों के साथ जुड़ा वैभव पीछे छूटता गया और ज्यादा फ्यूल एफिशिएंट हल्की गाड़ियां दुनिया भर में लोगों की पसंद का पैमाना बनती गईं। इसका नुकसान यह हुआ कि कारें और मोटरसाइकिलें मध्यवर्ग का प्रवेश द्वार बन गईं और समाज रफ्तार के जुनून में ढलने लगा।
कोरोना काल में गिरे भारत के जीडीपी आंकड़े अभी इसलिए भी उठते दिखाई दे रहे हैं क्योंकि अनलॉक के फेज में लोगों ने जमकर गाड़ियां खरीदी हैं। इससे पहले 2008-09 की मंदी से बाहर निकालने में भी मुख्य भूमिका ऑटो सेक्टर की ही थी। लेकिन इस सेक्टर का काम आसान करने के लिए सरकार जो सड़कें बना रही है, समाज उनपर दौड़ नहीं पा रहा है। वजह साफ है। सम्राट अशोक का बनवाया 1300 मील का उत्तरपथ हो, या उसी पर शेरशाह सूरी की बनवाई ग्रैंड ट्रंक रोड, इस तरह की सड़कें बाजारों को एक दूसरे से जोड़ती थीं और लोगों के लिए काम-धंधे की गुंजाइश पैदा करती थीं। ऐसी सड़कें आज भी खूब हैं, लेकिन स्पीड ने उन्हें अप्रासंगिक बना दिया है।
एक्सप्रेस वे टाइप की सड़कें शहरों को आपस में नहीं जोड़तीं। उनका मूड महानगर वाला है। वे अपने पड़ोसी को भी नहीं पहचानतीं। कन्नी काटकर बाईपास से निकल जाती हैं। पहले आदमी एक शहर से दूसरे शहर तक चलता था, अब वह एक टोल से दूसरे टोल तक चलता है। पहले वह रास्ते को एन्जॉय करता था, बाजारों में छोटे-मोटे सौदा-सुलफ करते हुए आगे बढ़ता था। अब वह सिर्फ स्पीड को एन्जॉय करता है, उसी को देखता है और वही समझता है।
एशिया की संस्कृति ‘धीरे चलो’ वाली ही रही है। भगवान बुद्ध से लेकर कन्फ्यूशियस तक ने इसको लेकर प्रवचन दे रखे हैं। हमारे बचपन की कहानियों में से एक कछुआ और खरगोश की कहानी भी रही है, बल्कि आज भी यह बाल कहानियों में टॉप पर है। धीरे चलने को लेकर लोकगीत ही नहीं, बॉलिवुड के कई गाने भी हैं। गांव में गाते हैं, ‘चलो रे मग धीरे-धीरे सिया सुकुमारी’ तो बॉलिवुड में ‘धीरे-धीरे मचल, ऐ दिले बेकरार’ जैसे गाने हैं। मगर ये तब के हैं, जब दुनिया एक्सप्रेस वे से नहीं गुजरती थी। पिछले महीने मैं आगरा एक्सप्रेस वे से दिल्ली आ रहा था तो एक बड़ी गाड़ी बगल से 120-30 की स्पीड में निकली। उसके डेक पर गाना बज रहा था, ‘छम्मक छल्लो, जरा धीरे चल्लो।’
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं

Disclaimer: This post has been auto-published from an agency/news feed without any modifications to the text and has not been reviewed by an editor.

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